और जो व्यक्ति तुममें से स्वतंत्र ईमान वालियों से विवाह करने की सकत न रखे, तो वह अपने हाथों में आई हुई अपनी ईमान वाली दासियों से (विवाह कर ले)। दरअसल, अल्लाह तुम्हारे ईमान को अधिक जानता है। तुम आपस में एक ही हो[1]। अतः तुम उनके स्वामियों की अनुमति से उन (दासियों) से विवाह कर लो और उन्हें नियमानुसार उनके महर (विवाह उपहार) चुका दो, वे सती हों, व्यभिचारिणी न हों, न गुप्त प्रेमी बना रखी हों। फिर जब वे विवाहित हो जायें, तो यदि व्यभिचार कर जायें, तो उनपर उसका आधा[2] दण्ड है, जो स्वतंत्र स्त्रियों पर है। ये (दासी से विवाह) उसके लिए है, जो तुममें से व्यभिचार से डरता हो और सहन करो, तो ये तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है और अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
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1. तुम आपस में एक ही हो, अर्थात मानवता में बराबर हो। ज्ञातव्य है कि इस्लाम से पहले दासिता की परम्परा पूरे विश्व में फैली हुई थी। बलवान जातियाँ निर्बलों को दास बना कर उन के साथ हिंसक व्यवहार करती थीं। क़ुर्आन ने दासिता को केवल युध्द के बन्दियों में सीमित कर दिया। और उन्हें भी अर्थदण्ड ले कर अथवा उपकार कर के मुक्त करने की प्रेरणा दी। फिर उन के साथ अच्छे व्यवहार पर बल दिया। तथा ऐसे आदेश और नियम बना दिये कि दासिता, दासिता नहीं रह गई। यहाँ इसी बात पर बल दिया गया है कि दासियों से विवाह कर लेने में कोई दोष नहीं। इस लिये मानवता में सब बराबर हैं, और प्रधानता का मापदण्ड ईमान तथा सत्कर्म है। 2. अर्थात पचास कोड़े।


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