किसी ईमान वाले के लिए वैध नहीं कि वो किसी ईमान वाले की हत्या कर दे, परन्तु चूक[1] से। फिर जो किसी ईमान वाले की चूक से हत्या कर दे, तो उसे एक ईमान वाला दास मुक्त करना है और उसके घर वालों को दियत (अर्थदण्ड)[2] देना है, परन्तु ये कि वे दान (क्षमा) कर दें। फिर यदि वह (निहत) उस जाति में से हो, जो तुम्हारी शत्रु है और वह (निहत) ईमान वाला है, तो एक ईमान वाला दास मुक्त करना है और यदि ऐसी क़ौम से हो, जिसके और तुम्हारे बीच संधि है, तो उसके घर वालों को अर्थदण्ड देना तथा एक ईमान वाला दास (भी) मुक्त करना है और जो दास न पाये, उसे निरन्तर दो महीने रोज़ा रखना है। अल्लाह की ओर से (उसके पाप की) यही क्षमा है और अल्लाह अति ज्ञानी तत्वज्ञ है।
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1. अर्थात निशाना चूक कर लगे। 2. यह अर्थदण्ड सौ ऊँट अथवा उन का मूल्य है। आयत का भावार्थ यह है कि जिन की हत्या करने का आदेश दिया गया है, वह केवल इस लिये दिया गया है कि उन्हों ने इस्लाम तथा मुसलमानों के विरुध्द युध्द आरंभ कर दिया है। अन्यथा यदि युध्द की स्थिति न हो तो हत्या एक महापाप है। और किसी मुसलमान के लिये कदापि यह वैध नहीं कि किसी मुसलमान की, या जिस से समझोता हो, उस की जान बूझ कर हत्या कर दे। संधि मित्र से अभिप्राय वे सभी ग़ैर मुस्लिम हैं, जिन से मुसलमानों का युध्द न हो, संधि तथा संविदा हो। फिर यदि चूक से किसी ने किसी की हत्या कर दी तो उस का यह आदेश है, जो इस आयत में बताया गया है। यह ज्ञातव्य है कि क़ुर्आन ने केवल दो ही स्थिति में हत्या को उचित किया हैः युध्द की स्थिति में, अथवा नियमानुसार किसी अपराधी की हत्या की जाये। जैसे हत्यारे को हत्या के बदले हत किया जाये।


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