अतिरिक्त उनके, जो ईमान लाये तथा सदाचार किये एवं एक-दूसरे को सत्य का उपदेश तथा धैर्य का उपदेश देते रहे।[1]
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1. इस का अर्थ यह है कि परलोक की क्षति से बचने के लिये मात्र ईमान ही पर बस नहीं इस के लिये सदाचार भी आवश्यक है और उस में से विशेष रूप से सत्य और सहनशीलता और दूसरों को इन की शिक्षा देते रहना भी आवश्यक हैं। (तर्जुमानुल क़ुर्आन, मौलाना आज़ाद)


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