वास्तव में, जो ईमान लाये, जो यहूदी हुए, साबी तथा ईसाई, जो भी अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान लायेगा तथा सत्कर्म करेगा, तो उन्हीं के लिए कोई डर नहीं और न वे उदासीन[1] होंगे।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि इस्लाम से पहले यहूदी, ईसाई तथा साबी जिन्हों ने अपने धर्म को पकड़ रखा है, और उस में किसी प्रकार की हेर-फेर नहीं किया, अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखा और सदाचार किये उन को कोई भय और चिंता नहीं होनी चाहिये। इसी प्रकार की आयत सूरह बक़रह (62) में भी आई है, जिस के विषय में आता है कि कुछ लोगों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से प्रश्न किया कि उन लोगों का क्या होगा जो अपने धर्म पर स्थित थे और मर गये? इसी पर यह आयत उतरी। परन्तु अब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और आप के लाये धर्म पर ईमान लाना अनिवार्य है, इस के बिना मोक्ष (नजात) नहीं मिल सकता।


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