ترجمة سورة الأعلى

الترجمة الهندية
ترجمة معاني سورة الأعلى باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية .
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

अपने सर्वोच्च प्रभु के नाम की पवित्रता का स्मरण करो।
जिसने पैदा किया और ठीक-ठीक बनाया।
और जिसने अनुमान लगाकर निर्धारित किया, फिर सीधी राह दिखायी।
और जिसने चारा उपजाया।[1]
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1. (1-4) इन आयतों में जिस पालनहार ने अपने नाम की पवित्रता का वर्णन करने का आदेश दिया है उस का परिचय दिया गया है कि वह पालनहार है जिस ने सभी को पैदा किया, फिर उन को संतुलित किया, और उन के लिये एक विशेष प्रकार का अनुमान बनाया जिस की सीमा से नहीं निकल सकते, और उन के लिये उस कार्य को पूरा करने की राह दिखाई जिस के लिये उन्हें पैदा किया है।
फिर उसे (सुखा कर) कूड़ा बना दिया।[1]
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1. (4-5) इन आयतों में बताया गया है कि प्रत्येक कार्य अनुक्रम से धीरे धीरे होते हैं। धरती के पौधे धीरे धीरे गुंजान और हरे भरे होते हैं। ऐसे ही मानवीय योग्तायें भी धीरे धीरे पूरी होती हैं।
(हे नबी!) हम तुम्हें ऐसा पढ़ायेंगे कि भूलोगे नहीं।
परन्तु, जिसे अल्लाह चाहे। निश्चय ही वह सभी खुली तथा छिपी बातों को जानता है।
और हम तुम्हें सरल मार्ग का साहस देंगे।[1]
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1. (6-8) इन में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह निर्देश दिया गया है कि इस की चिन्ता न करें कि क़ुर्आन मुझे कैसे याद होगा, इसे याद कराना हमारा काम है, और इस का सुरक्षित रहना हमारी दया से होगा। और यह उस की दया और रक्षा है कि इस मानव संसार में किसी धार्मिक ग्रन्थ के संबंध में यह दावा नहीं किया जा सकता कि वह सुरक्षित है, यह गर्व केवल क़ुर्आन को ही प्राप्त है।
तो आप धर्म की शिक्षा देते रहें। अगर शिक्षा लाभदायक हो।
डरने वाला ही शिक्षा ग्रहण करेगा।
और दुर्भाग्य उससे दूर रहेगा।
जो भीषण अग्नि में जायेगा।
फिर उसमें न मरेगा, न जीवित रहेगा।[1]
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1. (9-13) इन में बताया गया है कि आप को मात्र इस का प्रचार प्रसार करना है। और इस की सरल राह यह है कि जो सुने और मानने को लिये तैयार हो उसे शिक्षा दी जाये। किसी के पीछे पड़ने की आवश्यक्ता नहीं है। जो हत्भागे हैं वही नहीं सुनेंगे और नरक की यातना के रूप में अपना दुष्परिणाम देखेंगे।
वह सफल हो गया, जिसने अपना शुध्दिकरण किया।
तथा अपने पालनहार के नाम का स्मरण किया और नमाज़ पढ़ी।[1]
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1. (14-15) इन आयतों में कहा गया है कि सफलता मात्र उन के लिये है जो आस्था, स्वभाव तथा कर्म की पवित्रता को अपनायें, और नमाज़ अदा करते रहें।
बल्कि तुम लोग तो सांसारिक जीवन को प्राथमिकता देते हो।
जबकि आख़िरत का जीवन ही उत्त्म और स्थायी है।
यही बात, प्रथम ग्रन्थों में है।
(अर्थात) इब्राहीम तथा मूसा के ग्रन्थों में।[1]
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1. (16-19) इन आयतों का भावार्थ यह है कि वास्तव में रोग यह है कि काफ़िरों को सांसारिक स्वार्थ के कारण नबी की बातें अच्छी नहीं लगतीं। जब कि परलोक ही स्थायी है। और यही सभी आदि ग्रन्थों की शिक्षा है।
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