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1. (1-3) इस सूरह में सर्व प्रथम यह बताया गया है कि इस पुस्तक के साथ एक रसूल (ईशदूत) भेजना क्यों आवश्यक था। इस का कारण यह है कि मानव संसार के आदि शास्त्र धारी (यहूद तथा ईसाई) हों या मिश्रणवादी अधर्म की ऐसी स्थिति में फंसे हुये थे कि एक नबी के बिना उन का इस स्थिति से निकलना संभव नहीं था। इस लिये इस चीज़ की आवश्यक्ता आई कि एक रसूल भेजा जाये जो स्वयं अपनी रिसालत (दूतत्व) का ज्वलंत प्रमाण हो। और सब के सामने अल्लाह की किताब को उस के सह़ीह़ रूप में प्रस्तुत करे जो असत्य के मिश्रण से पवित्र हो जिस से आदि धर्म शास्त्रों को लिप्त कर दिया गया है।
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1. इस के बाद आदि धर्म शास्त्रों के अनुयाईयों के कुटमार्ग का विवरण दिया गया है कि इस का कारण यह नहीं था कि अल्लाह ने उन को मार्ग दर्शन नहीं दिया। बल्कि वे अपने धर्म ग्रन्थों में मन माना परिवर्तन कर के स्वयं कुटमार्ग का कारण बन गये।
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1. इन में यह बताया गया है कि अल्लाह की ओर से जो भी नबी आये सब की शिक्षा यही थी कि सब रीतियों को त्याग कर मात्र एक अल्लाह की उपासना की जाये। इस में किसी देवी देवता की पूजा अर्चना का मिश्रण न किया जाये। नमाज़ की स्थापना की जाये, ज़कात दी जाये। यही सदा से सारे नबियों की शिक्षा थी।
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1. (6-8) इन आयतों में साफ़ साफ़ कह दिया गया है कि जो अह्ले किताब और मूर्तियों के पुजारी इन रसूल को मानने से इन्कार करेंगे तो वे बहुत बुरे हैं। और उन का स्थान नरक है। उसी में वे सदा रहेंगे। और जो संसार में अल्लाह से डरते हुये जीवन निर्वाह करेंगे तथा विश्वास के साथ सदाचार करेंगे तो वे सदा के स्वर्ग में रहेंगे। अल्लाह उन से प्रसन्न हो गया, और वे अल्लाह से प्रसन्न हो गये।