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1. (1-4) इन में तीन चीज़ों की शपथ ली गई है। (1) बुर्जों वाले आकाश की। (2) प्रलय की, जिस का वचन दिया गया है। (3) प्रलय के भ्यावह दृश्य की और उस पूरी उत्पत्ति की जो उसे देखेगी। प्रथम शपथ इस बात की गवाही दे रही है जो शक्ति इस आकास के ग्रहों पर राज कर रही है उस की पकड़ से यह तुच्छ इन्सान बच कर कहाँ जा सकता है? दूसरी शपथ इस बात पर है कि संसार में इन्सान जो अत्याचार करना चाहे कर ले, परन्तु वह दिन अवश्य आना है जिस से उसे सावधान किया जा रहा है, जिस में सब के साथ न्याय किया जायेगा, और अत्याचारियों की पकड़ की जायेगी। तीसरी शपथ इस पर है कि जैसे इन अत्याचारियों ने विवश आस्तिकों के जलने का दृश्य देखा, इसी प्रकार प्रलय के दिन पूरी मानव जाति देखेगी कि उन की क्या दुर्गत है।
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1. (5-11) इन आयतों में जो आस्तिक सताये गये उन के लिये सहायता का वचन तथा यदि वे अपने विश्वास (ईमान) पर स्थित रहे तो उन के लिये स्वर्ग की शुभ सूचना और अत्याचारियों के लिये नरक की धमकी है जिन्होंने उन को सताया और फिर अल्लाह से क्षमा याचना आदि कर के सत्य को नहीं माना।
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1. (12-16) इन आयतों में बताया गया है कि अल्लाह की पकड़ के साथ ही जो क्षमा याचना कर के उस पर ईमान लाये, उस के लिये क्षमा और दया का द्वार खुला हुआ है। क़ुर्आन ने इस कुविचार का खण्डन किया है कि अल्लाह, पापों को क्षमा नहीं कर सकता। क्योंकि इस से संसार पापों से भर जायेगा और कोई स्वार्थी पापा कर के क्षमा याचना कर लेगा फिर पाप करेगा। यह कुविचार उस समय सह़ीह़ हो सकता है जब अल्लाह को एक इन्सान मान लिया जाये, जो यह न जानता हो कि जो व्यक्ति क्षमा माँग रहा है उस के मन में क्या है? अल्लाह तो मर्मज्ञ है, वह जानता है कि किस के मन में क्या है? फिर "तौबा" इस का नाम नहीं कि मुख से इस शब्द को बोल दिया जाये। तौबा (पश्चानुताप) मन से पाप न करने के प्रयत्न का नाम है और इसे अल्लाह तआला जानता है कि किसा के मन में क्या है?
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1. (17-18) इन में अतीत की कुछ अत्याचारी जातियों की ओर संकेत है, जिन का सविस्तार वर्णन क़ुर्आन की अनेक सूरतों में आया है। जिन्होंने आस्तिकों पर अत्याचार किये जैसे मक्का के क़ुरैश मुसलमानों पर कर रहे थे। जब कि उन को पता था कि पिछली जातियों के साथ क्या हुआ। परन्तु वे अपने परिणाम से निश्चेत थे।
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1. (19-20) इन दो आयतों में उन के दुर्भाग्य को बताया जा रहा है जो अपने प्रभुत्व के गर्व में क़ुर्आन को नहीं मानते। जब कि उसे माने बिना कोई उपाय नहीं, और वह अल्लाह के अधिकार के भीतर ही हैं।
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1. (21-22) इन आयतों में बताया गया है कि यह क़ुर्आन कविता और ज्योतिष नहीं है जैसा कि वह सोचते हैं, यह श्रेष्ठ और उच्चतम अल्लाह का कथन है जिस का उद्गम "लौह़े मह़फ़ूज़" में सुरक्षित है।